मित्रों इस लेख मे हम 300+ Sant Kabir Ke Dohe in Hindi आपके साथ साझा कर रहे हैं। आशा करता हूँ आपको पढ़ के कुछ सीखने को जरूर मिलेगा।
kabir das ka janm kab hua tha?
kabir das जी का जन्म 1398 को वाराणसी मे हुआ था! आज कबीर के दोहे करोड़ों लोग पढ़ते हैं, kabir das ki bani लोग सुनते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं।
Sant Kabir Ke Dohe In Hindi
- यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ये जो शरीर है वो विष से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीश देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
- सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए।।
अर्थ: अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों का कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है।
- पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात।
देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं एक पानी के बुलबुले के समान हैं, जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सब मोह माया और सारा अंधकार छिप जायेगा।
- चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।
अर्थ: चलती चक्की को देखकर कबीर दास जी के आँसू निकल आते हैं और वो कहते हैं कि चक्की के पाटों के बीच में कुछ साबुत नहीं बचता।
- मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।।
अर्थ: मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं, कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। यतार्थ आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।
- ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग।
तेरा साईं तुझ ही में है, जाग सके तो जाग।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं-की जैसे तिल के अंदर तेल होता है, और आग के अंदर रौशनी होती है ठीक वैसे ही हमारा ईश्वर हमारे अंदर ही विद्धमान है, अगर ढूंढ सको तो ढूढ लो।
- जहाँ दया तहा धर्म है, जहाँ लोभ वहां पाप।
जहाँ क्रोध तहा काल है, जहाँ क्षमा वहां आप।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते- हैं कि जहाँ दया है, वहीँ धर्म है और जहाँ लोभ है वहां पाप है, और जहाँ क्रोध है वहां सर्वनाश है और जहाँ क्षमा है वहाँ ईश्वर का वास होता है।
- जो घट प्रेम न संचारे, जो घट जान सामान।
जैसे खाल लुहार की, सांस लेत बिनु प्राण।।
अर्थ: जिस इंसान के अंदर दूसरों के प्रति प्रेम की भावना नहीं है वो इंसान पशु के समान है।
- जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।।
अर्थ: कमल जल में खिलता है और चन्द्रमा आकाश में रहता है। लेकिन चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जब जल में चमकता है तो कबीर दास जी कहते हैं कि कमल और चन्द्रमा में इतनी दूरी होने के बावजूद भी दोनों कितने पास है। जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब ऐसा लगता है जैसे चन्द्रमा खुद कमल के पास आ गया हो। वैसे ही जब कोई इंसान ईश्वर से प्रेम करता है वो ईश्वर स्वयं चलकर उसके पास आते हैं।
- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए।।
अर्थ: अगर आपका मन शीतल है तो दुनियां में कोई आपका दुश्मन नहीं बन सकता।
- ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि अब तक जो समय गुजारा है वो व्यर्थ गया, ना कभी सज्जनों की संगति की और ना ही कोई अच्छा काम किया। प्रेम और भक्ति के बिना इंसान पशु के समान है और भक्ति करने वाला इंसान के ह्रदय में भगवान का वास होता है।
- तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर विचार।।
अर्थ: तीर्थ करने से एक पुण्य मिलता है, लेकिन संतो की संगति से पुण्य मिलते हैं, और सच्चे गुरु के पा लेने से जीवन में अनेकों पुण्य मिल जाते हैं।
- तन को जोगी सब करे, मन को विरला कोय।
सहजे सब विधि पाइए, जो मन जोगी होए।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि- ‘लोग रोजाना अपने शरीर को साफ़ करते हैं लेकिन मन को कोई साफ़ नहीं करता। जो इंसान अपने मन को भी साफ़ करता है वही सच्चा इंसान कहलाने लायक है।‘
- प्रेम न बारी उपजे, प्रेम न हाट बिकाए।
राजा प्रजा जो ही रुचे, सिस दे ही ले जाए।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि प्रेम कहीं खेतों में नहीं उगता और ना ही प्रेम कहीं बाजार में बिकता है। जिसको प्रेम चाहिए उसे अपना शीशक्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।
- जिन घर साधू न पुजिये, घर की सेवा नाही।
ते घर मरघट जानिए, भुत बसे तिन माही।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जिस घर में साधु और सत्य की पूजा नहीं होती, उस घर में पाप बसता है। ऐसा घर तो मरघट के समान है जहाँ दिन में ही भूत प्रेत बसते हैं।
- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि एक सज्जन पुरुष में सूप जैसा गुण होना चाहिए। जैसे सूप में अनाज के दानों को अलग कर दिया जाता है वैसे ही सज्जन पुरुष को अनावश्यक चीज़ों को छोड़कर केवल अच्छी बातें ही ग्रहण करनी चाहिए।
- पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडियां चुग गई खेत।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि बीता समय निकल गया, आपने ना ही कोई परोपकार किया और नाही ईश्वर का ध्यान किया। अब पछताने से क्या होता है, जब चिड़िया चुग गयी खेत।
- जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जब मेरे अंदर अहंकारमैं था, तब मेरे ह्रदय में हरीईश्वर का वास नहीं था। और अब मेरे ह्रदय में हरी यानी ईश्वर का वास है तो मैं अहंकार नहीं है। जब से मैंने गुरु रूपी दीपक को पाया है तब से मेरे अंदर का अंधकार खत्म हो गया है।
- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।
- प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय।।
अर्थ: जिसको ईश्वर प्रेम और भक्ति का प्रेम पाना है उसे अपना शीशराम, क्रोध, भय, इच्छा को त्यागना होगा। लालची इंसान अपना शीशराम, क्रोध, भय, इच्छा तो त्याग नहीं सकता लेकिन प्रेम पाने की उम्मीद रखता है।
- कबीरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानही, सो का पीर में पीर।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो इंसान दूसरे की पीड़ा और दुःख को समझता है, वही सज्जन पुरुष है और जो दूसरे की पीड़ा ही ना समझ सके ऐसे इंसान होने से क्या फायदा।
- कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि वे लोग अंधे और मूर्ख हैं जो गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते। अगर ईश्वर आपसे रूठ गया तो गुरु का सहारा है, लेकिन अगर गुरु आपसे रूठ गया तो दुनियां में कहीं आपका सहारा नहीं है।
- कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि तू क्यों हमेशा सोया रहता है।जाग कर ईश्वर की भक्ति कर, नहीं तो एक दिन तू लम्बे पैर पसार कर हमेशा के लिए सो जायेगा।
- नहीं शीतल है चंद्रमा, हिम नहीं शीतल होय।
कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि चन्द्रमा भी उतना शीतल नहीं है और हिम-बर्फ भी उतना शीतल नहीं होती जितना शीतल सज्जन पुरुष हैं। सज्जन पुरुष मन से शीतल और सभी से स्नेह करने वाले होते हैं।
- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
अर्थ: जब मृत्यु का समय नजदीक आया और राम के दूतों का बुलावा आया तो कबीर दास जी रो पड़े क्यूंकि जो आनंद संत और सज्जनों की संगति में है उतना आनंद तो स्वर्ग में भी नहीं होगा।
- शीलवंत सबसे बड़ा, सब रतनन की खान।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन।
अर्थ: शांत और शीलता सबसे बड़ा गुण है और ये दुनिया के सभी रत्नों से महंगा रत्न है। जिसके पास शीलता है उसके पास मानों तीनों लोकों की संपत्ति है।
- साईं इतना दीजिये, जामे कुटुंब समाये।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि’ हे प्रभु मुझे ज्यादा धन और संपत्ति नहीं चाहिए, मुझे केवल इतना चाहिए जिसमें मेरा परिवार अच्छे से खा सके। मैं भी भूखा ना रहूं और मेरे घर से कोई भूखा ना जाये।‘
- माखी गुड में गडी रहे, पंख रहे लिपटाए।
हाथ मेल और सर धुनें, लालच बुरी बलाय।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘मक्खी पहले तो गुड़ से लिपटी रहती है। अपने सारे पंख और मुंह गुड़ से चिपका लेती है लेकिन जब उड़ने प्रयास करती है तो उड़ नहीं पाती तब उसे अफ़सोस होता है। ठीक वैसे ही इंसान भी सांसारिक सुखों में लिपटा रहता है और अंत समय में अफ़सोस होता है।‘
- ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार।
हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘ये संसार तो माटी का है, आपको ज्ञान पाने की कोशिश करनी चाहिए नहीं तो मृत्यु के बाद जीवन और फिर जीवन के बाद मृत्यु यही क्रम चलता रहेगा।‘
- कुटिल वचन सबसे बुरा, जा से होत न चार।
साधू वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘कड़वे बोल बोलना सबसे बुरा काम है, कड़वे बोल से किसी बात का समाधान नहीं होता। वहीँ सज्जन विचार और बोल अमृत के समान हैं।‘
- आये है तो जायेंगे, राजा रंक फ़कीर।
इक सिंहासन चढी चले, इक बंधे जंजीर।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘जो इस दुनियां में आया है उसे एक दिन जरूर जाना है। चाहे राजा हो या फ़क़ीर, अंत समय यमदूत सबको एक ही जंजीर में बांध कर ले जायेंगे।‘
- ऊँचे कुल का जनमिया, करनी ऊँची न होय।
सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधू निंदा होय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ऊँचे कुल में जन्म तो ले लिया लेकिन अगर कर्म ऊँचे नहीं है तो ये तो वही बात हुई जैसे सोने के लोटे में जहर भरा हो, इसकी चारों ओर निंदा ही होती है।
- रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।।
अर्थ: रात सो कर बिता दी, दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भेंट चढ़ा दिया – इससे दुखद क्या हो सकता है ?
- कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सुरमा, जाती बरन कुल खोए।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘कामी, क्रोधी और लालची, ऐसे व्यक्तियों से भक्ति नहीं हो पाती। भक्ति तो कोई सूरमा ही कर सकता है जो अपनी जाति, कुल, अहंकार सबका त्याग कर देता है।‘
- कागा का को धन हरे, कोयल का को देय।
मीठे वचन सुना के, जग अपना कर लेय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि ‘कौआ किसी का धन नहीं चुराता, लेकिन फिर भी कौआ लोगों को पसंद नहीं होता। वहीँ कोयल किसी को धन नहीं देती लेकिन सबको अच्छी लगती है। ये फर्क है बोली का – कोयल मीठी बोली से सबके मन को हर लेती है।‘
- लुट सके तो लुट ले, हरी नाम की लुट।
अंत समय पछतायेगा, जब प्राण जायेगे छुट।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ‘ये संसार ज्ञान से भरा पड़ा है, हर जगह राम बसे हैं। अभी समय है राम की भक्ति करो, नहीं तो जब अंत समय आएगा तो पछताना पड़ेगा’।
- तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ‘तिनके को पांव के नीचे देखकर उसकी निंदा मत करिये क्यूंकि अगर हवा से उड़के तिनका आँखों में चला गया तो बहुत दर्द करता है। वैसे ही किसी कमजोर या गरीब व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए।‘
- धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
अर्थ: कबीरदास जी मन को समझाते हुए कहते हैं कि ‘हे मन! दुनिया का हर काम धीरे धीरे ही होता है। इसलिए सब्र करो। जैसे माली चाहे कितने भी पानी से बगीचे को सींच ले लेकिन वसंत ऋतू आने पर ही फूल खिलते हैं।‘
- माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि’ मायाधन और इंसान का मन कभी नहीं मरा, इंसान मरता है शरीर बदलता है लेकिन इंसान की इच्छा और ईर्ष्या कभी नहीं मरती।‘
- माँगना मरण समान है, मत मांगो कोई भीख।
मांगन से मरना भला, ये सतगुरु की सीख।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि ‘मांगना तो मृत्यु के समान है, कभी किसी से भीख मत मांगो। मांगने से भला तो मरना है।‘
- ज्यों नैनन में पुतली, त्यों मालिक घर माँहि।
मूरख लोग न जानिए , बाहर ढूँढत जाहिं।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जैसे आँख के अंदर पुतली है, ठीक वैसे ही ईश्वर हमारे अंदर बसा है।ये बात मूर्ख लोग नहीं जानते ओर बाहर ही ईश्वर को तलाशते रहते हैं।
- कबीरा जब हम पैदा हुए, जग हँसे हम रोये।
ऐसी करनी कर रहे चलो, हम हँसे जग रोये।।
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि -जब हम पैदा हुए थे उस समय सारी दुनिया खुश थी और हम रो रहे थे। जीवन में कुछ ऐसा काम करके जाओ कि जब हम मरें तो दुनियां रोये और हम हँसे।
- हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।
सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा मेंह।
अर्थ: पानी के स्नेह को हरा वृक्ष ही जानता है।सूखा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? भावार्थात सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है। निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
- झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेंह।
माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह।
अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे। इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु पत्थर वैसा का वैसा बना रहा। कहने का तात्पर्य ये है की कोमल मन ही जीवन का आनंद ले सकता है ।
- कहत सुनत सब दिन गए, उरझी न सुरझ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन अभी भी होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है।अब भी ये उलझन में है।
- कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।
कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।।
अर्थ: थोड़ा सा जीवन है, उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है। चाहे राजा हो या निर्धन चाहे बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए।
- लूट सके तो लूट ले,राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछ्ताओगे,प्राण जाहि जब छूट॥
अर्थ: कबीर जी कहते है की ‘संसार में राम के नाम अतार्थ भगवान के सुमिरन धूमहै, जब तक प्राणों में प्राण है प्रभु का का नाम जप लो प्राण निकल गए तो कुछ नही कर पाओगे।‘
- इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।
राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय।।
अर्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा। हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तुम अभी से सावधान क्यों नहीं हो जाते ।
- कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।
सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उस अतिथि के समान है जो सूने, निर्जन घर में जैसा आता है, वैसा ही चला भी जाता है, कुछ प्राप्त नहीं कर पाता।
kabir ke dohe with meaning
- मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।
ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ देह।।
अर्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गुण तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनुष्य से कुछ देने के लिए कहा जाता है।
- जाता है सो जाण दे, तेरी दसा न जाइ।
खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ।।
अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो। तुम अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो। यदि तुम अपने स्वरूप में बने रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तुमसे मिलेंगे।
- मानुष जन्म दुलभ है, देह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि।
अर्थ: मानव जन्म पाना कठिन है। यह शरीर बार-बार नहीं मिलता। जो फल वृक्ष से नीचे गिर पड़ता है वह पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता ।
- यह तन काचा कुम्भ है,लिया फिरे था साथ।
ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ।।
अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था।जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया। कुछ भी हाथ नहीं आया।
- मैं मैं बड़ी बलाय है, सकै तो निकसी भागि।
कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि।।
अर्थ: अहंकार बहुत बुरी वस्तु है। हो सके तो इससे निकल दूर चले जाओ। मित्र,मैं रूई में लिपटी इस अग्नि – अहंकार – को मैं कब तक अपने साथ रखूँ? अहंकार उस रुई में लगे आग की तरह है जो जरा सी आंच पाते ही सबकुछ तबाह कर देती है।
- कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई।
अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई।।
अर्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा जिससे अंतरात्मा तक भीग गई, आस पास पूरा परिवेश हरा भरा हो गया,खुश हाल हो गयायह प्रेम का अपूर्व प्रभाव है। हम इसी प्रेम में क्यों नहीं जीते !
- जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।
ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम।।
अर्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं। प्रेम जीवन की सार्थकता है। प्रेम रस में डूबे रहना जीवन का सार है।
- लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।।
अर्थ: घर दूर है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं। हे सज्जनों ! कहो , भगवान् का दुर्लभ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन है, अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं, उनमें पड़कर हम भरमाए रहते हैं।बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं ,हम अपना लक्ष्य भूलते रहते हैं -अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं।
- इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींचौं तेल ज्यूं, कब मुख देखों पीव।।
अर्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालूँ और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर से लौ लगाना उसे पाने की चाह करना उसकी भक्ति में तन-मन को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता है।
- नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।
ना हौं देखूं और को न तुझ देखन देऊँ।।
अर्थ: हे प्रिय ! प्रभु तुम इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद कर लूं, फिर न तो मैं किसी दूसरे को देखूं और न ही किसी और को तुम्हें देखने दूं।
- कबीर रेख सिन्दूर की काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रहा दूजा कहाँ समाई।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जहां सिन्दूर की रेखा है वहां काजल नहीं दिया जा सकता। जब नेत्रों में राम विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?
ये भी पड़ें: कबीर दास जी की जीवनी
- कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास।
समुदहि तिनका करि गिने, स्वाति बूँद की आस।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है। स्वाति नक्षत्र की बूँद की आशा लिए हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है। हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे पाने की लगन है, उसके बिना सब निरश है।
- सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग।
ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब खाली पड़े हैं उनपर कौए बैठने लगे हैं। हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता, जहां खुशियाँ थी वहां गम छा जाता है,जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है।यही इस संसार का नियम है।
- कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे देखि अवास ।
काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास।।
अर्थ: कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को देख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और आप भी धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे, और ऊपर से घास उगने लगेगी।वीरान सुनसान हो जाएगा ,जो अभी हंसता खिलखिलाता घर आँगन है;इसलिए कभी गर्व अथार्त घमंड नही करना करना चाहिए।
- जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबार।
जिनि पंथूं तुझ चालणा सोई पंथ संवारि।।
अर्थ: जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे। जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का स्मरण कर, उसे ही याद रख उसे ही संवार सुन्दर बना।
- बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत।
आधा परधा ऊबरै, चेती सकै तो चेत।।।
अर्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया। कुछ खेत अब भी बचा है यदि सावधान हो सकते हो तो हो जाओ,उसे बचा लो जीवन में असावधानी के कारण इंसान बहुत कुछ गँवा देता है,उसे खबर भी नहीं लगती नुक्सान हो चुका होता है। यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नुक्सान से बच सकते हैं।इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को,जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में भयंकर वायु प्रदूषण से बचते पर ,अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।
- कबीर देवल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार।
करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दूजी बार।।
अर्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी देवालय नष्ट हो गया -उसकी ईंट ईंट- अर्थात शरीर का अंग-अंग शैवाल अर्थात काई में बदल गई। इस देवालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह देवालय दूसरी बार नष्ट न हो।
- कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि।
दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि।।
अर्थ: यह शरीर लाख का बना मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं।यह चार दिन का खिलौना है कल ही नष्ट हो जाएगा। शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि देह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है -अचानक ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते।
- कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि।
नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि।
अर्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है, हो सके तो अब भी संभल जाओ इसे संभाल लो जिनके पास लाखों करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो।
- हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि।
आप आप कूँ काटि है, कहै कबीर बिचारि।।
अर्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं। इस प्रकार हम खुद अपने आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं।
- तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ।
मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ।
अर्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है। सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं,जब तक इस बात का भरोसा मन में उत्पन्न नहीं होता, तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता। भावार्थात वास्तविकता का ज्ञान न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है , इस स्वार्थमय सृष्टि को समझ लेता है -तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है ,भीतर झांकता है ।
- मैं मैं मेरी जिनी करै, मेरी सूल बिनास।
मेरी पग का पैषणा मेरी गल की पास।
अर्थ: ममता और अहंकार में मत फंसो और बंधो- यह ‘मेरा’ है कि रट मत लगाओ।ये विनाश के मूल हैं, जड़ हैं ,कारण हैं। ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है।
- कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार।
हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं। जिनके सिर पर विषय वासनाओं का बोझ है। वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं,संसारी हो कर रह जाते हैं। दुनिया के धंधों से उबर नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मुक्त हैं।हलके हैं वे तर जाते हैं, पार लग जाते हैं ,भव सागर में डूबने से बच जाते हैं।
- मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै।
काहे की कुसलात कर दीपक कूंवै पड़े।।
अर्थ: मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी कुंए में गिर पड़े उसमे कुशलता कैसी?
- हिरदा भीतर आरसी मुख देखा नहीं जाई।
मुख तो तौ परि देखिए जे मन की दुविधा जाई।।
अर्थ: ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं देता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता जब मन का संशय मिट जाए !
- करता था तो क्यूं रहया, जब करि क्यूं पछिताय।
बोये पेड़ बबूल का, अम्ब कहाँ ते खाय।।
अर्थ: यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप क्यों करता है? पेड़ तो बबूल का लगाया है ,फिर आम खाने को कहाँ से मिलें।
- कागत लिखै सो कागदी, को व्याहारि जीव आतम दृष्टि कहां लिखै, जीत देखो तीत पीव।
अर्थ: कागज में लिखा शास्त्रों का ज्ञान सिर्फ एक दस्तावेज है। जीवन का असल अनुभव नहीं है। आत्म दृष्टि से प्राप्त अनुभव कहीं लिखे नहीं जाते। हम तो जहां भी देखते हैं वहां अपने प्यारे परमात्मा को पाते हैं।
- धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय।
अर्थ: प्रेम का नाता नाज़ुक होता है। इसे झटका देकर तोड़ना सही नहीं होता। यदि प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे जोडना कठिन होता है और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है।
- देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई, कहा करे तलवारि।
अर्थ: बड़ी वस्तु को देख कर छोटी वस्तु को फेंकना नहीं चाहिए।जहां छोटी सी सुई काम आती है, वहां तलवार क्या कर सकती है।
- उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग।।
अर्थ: जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती।जहरीले सांप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।
- रूठे सुजन मनाइए, जो रूठे सौ बार।
फिरि फिरि पोइए, टूटे मुक्ता हार।
अर्थ: यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे, तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए,क्योंकि यदि मोतियों की माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए।
- जो बड़ेन को लघु कहें, नहीं रघटी जाहिं।
गिरधर मुरलीधर कहें, कछु दुःख मानत नाहिं।।
अर्थ: बड़े को छोटा कहने से बड़े का सम्मान नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती है।
- जैसी परे सो सहि रहे, यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह।
अर्थ: जैसे इस देह पर पड़ती है,सहन करनी चाहिए, क्योंकि इस धरती पर ही सर्दी, गर्मी और वर्षा पड़ती है। अर्थात जैसे धरती शीत, धूप और वर्षा सहन करती है उसी प्रकार शरीर को सुख-दुःख सहन करना चाहिए।
- खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय।
करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय।
अर्थ: खीरे का कडुवापन दूर करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता है, इसलिए कड़ुवे मुंह वाले के लिए -कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा ठीक है ।
- दोनों पंछी एक से, जों लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं।
अर्थ: कौआ और कोयल रंग में एक समान होते हैं।जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो पाती।लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
- अंसुवा नयन ढरि, जिय दुःख प्रगट करेइ।
जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि देइ।।
अर्थ: आंसु नयनों से बहकर मन का दुःख प्रकट कर देते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से निकाला जाएगा वह घर का भेद दूसरों से कह ही देगा।
- निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय।
अर्थ: अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।
- पावस देखि मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछे कौन।।
अर्थ: वर्षा ऋतु को देखकर कोयल के मन ने मौन साध लिया है। अब तो मेंढक ही बोलने वाले हैं। हमारी तो कोई बात ही नहीं पूछता। अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गुणवान को चुप रह जाना पड़ता है। उनका कोई आदर नहीं करता और गुणहीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है।
- विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जान परत सब को।।
अर्थ: यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है, क्योंकि विपत्ति में ही सबके विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं।
- वे नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बांटन वारे को लगे, ज्यों मेंहदी को रंग।।
अर्थ: वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है। जिस प्रकार मेंहदी बांटने वाले के अंग पर भी मेंहदी का रंग लग जाता है, उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता है।
- समय पाय फल होत है, समय पाय झरी जात।
सदा रहे नहिं एक सी, का मनुष्य पछितात।।
अर्थ: उपयुक्त समय आने पर वृक्ष में फल लगता है। झड़ने का समय आने पर वह झड़ जाता है. सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दुःख के समय पछताना व्यर्थ है ।
- ओछे को सतसंग तजहु अंगार ज्यों।
तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै।।
अर्थ: ओछे मनुष्य का साथ छोड़ देना चाहिए. हर अवस्था में उससे हानि होती है -जैसे अंगार जब तक गर्म रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठंडा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है।
- वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर।
परमारथ के कारने, साधुन धरा सरीर ।।
अर्थ: वृक्ष कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन परोपकार के लिए देह धारण करते हैं।
- लोहे की न लोहार की, विचार जा।
हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार।।
अर्थ: तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर देता है।
- तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।।
अर्थ: जिससे कुछ पा सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना उचित है, क्योंकि पानी से रिक्त तालाब से प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है ।
- माह मास लहि टेसुआ मीन, परे थल और।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर।।
अर्थ: माघ मास आने पर टेसू का वृक्ष और पानी से बाहर पृथ्वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है। इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है। मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है।
- नीर पखान, बूड़े पै सीझै नहीं।
तैसे मूरख ज्ञान, बूझै पै सूझै नही।।
अर्थ: जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर भी पत्थर नरम नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता।
- संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं।
ज्यों में ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं।।
अर्थ: जिस प्रकार दिन में चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है,उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन में फंस कर अपना धन गँवा देता है वह निष्प्रभ हो जाता है।
- साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान।
सांचे सूर को बैरी कराइ बखान।।
अर्थ: इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है, यति योगी और योग की प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं।
- वरू रहीम कानन भल्यो वास करिय फल भोग।
बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग।।
अर्थ: निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं, है इससे अच्छा तो यह है कि वन मैं जाकर रहें और फलों का भोजन करें।
- राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ।
जो भावी कतहूँ होत आपने हाथ।।
अर्थ: यदि होनहारी अपने ही हाथ में होती, यदि जो होना है उस पर हमारा बस होता तो ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे गए और सीता का हरण हुआ. क्योंकि होनी को होना था- उस पर हमारा बस न था इसलिए तो राम स्वर्ण मृग के पीछे गए और सीता को रावण हर कर लंका ले गया।
- रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय।
भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय।।
अर्थ: उस व्यवहार की सराहणा की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान हो। घडा और रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दूसरों को जल पिलाते हैं। जब घडा कुँए में जाता है तो रस्सी के टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है।
- निज कर क्रिया कहि सीधी भावी के हाथ।
पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ।।
अर्थ: अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है। सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता।
Sant Kabir Das Ke Dohe in Hindi with Meaning
- मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।
बसीकरन इक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।।
अर्थ: मधुर वाणी सभी ओर सुख प्रकाशित करती हैं, और यह हर किसी को अपनी और सम्मोहित करने का कारगर मंत्र है, इसलिए हर मनुष्य को कटु वाणी त्याग कर मीठे बोल बोलने चाहिए।
- काम क्रोध मद लोभ की, जौ लौं मन में खान।
तौ लौं पण्डित मूरखौं, सब एक समान।।
अर्थ: जब तक काम, क्रोध, घमंड और लालच व्यक्ति के मन में भरे पड़े हैं, तब तक ज्ञानी और मूढ़ व्यक्ति के बीच कोई अंतर नहीं होता है, दोनों ही एक जैसे हो जाते हैं।
- देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।।
अर्थ: सुंदर परिधान देखकर न सिर्फ मूढ़ बल्कि बुद्धिमान मनुष्य भी झांसा खा जाते हैं।जैसे मनोरम मयूर को देख लीजिए उसके वचन तो अमृत के समरूप है लेकिन खुराक सर्प का है।
- बचन वेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
अर्थ: किसी भी व्यक्ति को उसकी मीठी वाणी और अच्छे पोशाक से यह नहीं जाना जा सकता की वह सज्जन है या दुष्ट। बाहरी सुशोभन और आलंबन से उसके दिमागी हालात पता नहीं लगा सकते। जैसे शूपर्णखां, मरीचि, पूतना और रावण के परिधान अच्छे थे लेकिन मन गंदा।
- जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोई।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोई।।
अर्थ: दूसरों की निंदा करके खुद की पीठ थपथपाने वाले लोग मतिहीन है। ऐसे मूढ़ लोगो के मुख पर एक दिन ऐसी कालिख लगेगी जो मरने तक साथ नहीं छोड़ेगी।
- तनु गुण धन धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
जिअत बिडम्बना, परिनामहू गत जान।।
अर्थ: सुंदरता, अच्छे गुण, संपत्ति, शोहरत और धर्म के बिना भी जिन लोगों में अहंकार है।ऐसे लोगों का जीवनकाल कष्टप्रद होता है जिसका अंत दुखदाई ही होता है।
- सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।
अर्थ: बहादुर व्यक्ति अपनी वीरता युद्ध के मैदान में शत्रु के सामने युद्ध लड़कर दिखाते है। और कायर व्यक्ति लड़कर नहीं बल्कि अपनी बातों से ही वीरता दिखाते है।
- सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।
सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि।
अर्थ: अपने हितकारी स्वामी और गुरु की नसीहत ठुकरा कर जो इनकी सीख से वंचित रहता है, वह अपने दिल में ग्लानि से भर जाता है और उसे अपने हित का नुकसान भुगतना ही पड़ता है।
- राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।।
अर्थ: अगर मनुष्य अपने भीतर और अपने बाहर जीवन में उजाला चाहता है तो उसे अपने मुखरूपी प्रवेशद्वार की जिह्वारूपी चौखट पर राम नाम की मणि रखनी चाहिए।
- मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अंग सहित विवेक।।
अर्थ: अधिनायक (लीडर) मुख जैसा होना चाहिए, जो खान-पान में तो इकलौता होता है लेकिन समझदारी से शरीर के सभी अंगों का बिना भेदभाव समान लालन-पालन करता है।
- सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।।
अर्थ: मंत्री, हकीम और गुरु यह तीनों अगर लाभ या भय के कारण अहित की मीठी बातें बोलते है तो राष्ट्र, देह और मज़हब के लिए यह अवश्य विनाशकारी साबित होता है,इस वजह से राष्ट्र, देह और मज़हब का जल्द ही पतन हो जाता है।
- सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकति हानि।।
अर्थ: जो व्यक्ति अपने नुकसान का अंदेशा लगाकर अपने पनाह में आयें शरणार्थी को नकार देते है, वो नीच और पापी होते हैं । ऐसे लोगो से तो दूरी बनाये रखना ही उचित है।
- दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
दया न छांड़िए जब लग घट में प्राण।।
अर्थ: दया, करुणा धर्म का मूल है और घमंड सभी दुराचरण की जड़ इसलिए मनुष्य को हमेशा करुणामय रहना चाहिए और दया का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
- आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।
तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।
अर्थ: जिस समूह में शिरकत होने से वहां के लोग आपसे खुश नहीं होते और वहां लोगों की नज़रों में आपके लिए प्रेम या स्नेह नहीं है, तो ऐसे स्थान या समूह में हमें कभी शिरकत नहीं करना चाहिए, भले ही वहाँ स्वर्ण बरस रहा हो।
- साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।।
अर्थ: किसी भी विपदा से यह सात गुण आपको बचाएंगे, 1 – आपकी विद्या, ज्ञान 2 – आपका विनय,विवेक, 3 – आपके अंदर का साहस, पराक्रम 4 – आपकी बुद्धि, प्रज्ञा 5 – आपके भले कर्म 6 – आपकी सत्यनिष्ठा 7 – आपका भगवान के प्रति विश्वास ।
- नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण।।
अर्थ: समय बलवान न मनुष्य महान अर्थात मनुष्य बड़ा या छोटा नहीं होता वास्तव में यह उसका समय ही होता है जो बलवान होता है। जैसे एक समय था जब महान धनुर्धर अर्जुन ने अपने गांडीव बाण से महाभारत का युद्ध जीता था और एक ऐसा भी समय आया जब वही महान धनुर्धर अर्जुन भीलों के हाथों लुट गया और वह अपनी गोपियों का भीलों के आक्रमण से रक्षण भी नहीं कर पाया।
- इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संज।।
अर्थ: इस जगत में भांति भांति (कई प्रकार के) प्रकृति के लोग है, आपको सभी से प्यार से मिलना-जुलना चाहिए । जैसे एक नौका नदी से प्यार से सफ़र कर दूसरे किनारे पहुंच जाती है, ठीक वैसे ही मनुष्य भी सौम्य व्यवहार से भवसागर के उस पार पहुंच जाएगा ।
- नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सिमरत भयो भाँग ते कबीरदास।।
अर्थ: राम का नाम कल्पवृक्ष (हर इच्छा पूरी करनेवाला वृक्ष) और कल्याण का निवास (स्वर्गलोक) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (तुच्छ सा) कबीर भी कबीरदासदास की तरह पावन हो गया।
- तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।
अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।।
अर्थ: भगवान पर भरोसा करें और किसी भी भय के बिना शांति से सोइए । कुछ भी अनावश्यक नहीं होगा, और अगर कुछ अनिष्ट घटना ही है तो वो घटकर ही रहेगा इसलिए अनर्थक चिंता, परेशानी छोड़ कर मस्त जिए।
- साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक।।
अर्थ: यदि किसी व्यक्ति में विद्या, विनय, विवेक, साहस, सुआचरन, सत्यवादी और भगवान् पे पूर्ण निष्ठा हो तो उसके जीवन की बड़े से बड़ा संकट और जीवन की विपत्तिया स्वयं टल जाएगी।
- जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ: जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो जो चाहे वो पा लेते हैं जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं
- कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं जब तक देह है तू दोनों हाथों से दान किए जा। जब देह से प्राण निकल जाएगा। तब न तो यह सुंदर देह बचेगी और न ही तू फिर तेरी देह मिट्टी की मिट्टी में मिल जाएगी और फिर तेरी देह को देह न कहकर शव कहलाएगा।
- “या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
अर्थ: इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।
- “धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहिं कबीर।”
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।
- “कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।”
अर्थ: उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट (दुष्टों)तथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
- “कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।”
अर्थ: गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है।
- गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै,
कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे,
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै,
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।।”
अर्थ: महाकवि कबीर दास जी कहते हैं यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, तो मिली हुई गाई भी भारी ज्ञान का सामान है। सहन करने से करोड़ों काम (संसार में) सुधर जाते हैं। और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है?
- “बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।”
अर्थ: सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय -प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।
- सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात।।
अर्थ: इस दोहे में कवि ने कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन किया है। कवि का कहना है कि कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हैं।
- कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।
अर्थ: इस दोहे में कवि ने भरी दोपहरी से बेहाल जंगली जानवरों की हालत का चित्रण किया है। भीषण गर्मी से बेहाल जानवर एक ही स्थान पर बैठे हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं। हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं। कवि को लगता है कि गर्मी के कारण जंगल किसी तपोवन की तरह हो गया है। जैसे तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठते हैं, उसी तरह गर्मी से बेहाल ये पशु भी आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठे हैं।
- बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ॥
अर्थ: इस दोहे में कवि ने गोपियों द्वारा कृष्ण की बाँसुरी चुराए जाने का वर्णन किया है। गोपियों ने कृष्ण की मुरली इसलिए छुपा दीै । ताकि इसी बहाने उन्हें कृष्ण से बातें करने का मौका मिल जाए । साथ में गोपियाँ कृष्ण के सामने नखरे भी दिखा रही हैं। वे अपनी भौहों से तो कसमे खा रही हैं । लेकिन उनके मुँह से ना ही निकलता है।
- बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह॥
अर्थ: इस दोहे में कवि ने जेठ महीने की गर्मी का चित्रण किया है। जेठ की गरमी इतनी तेज होती है कि छाया भी छाँह ढ़ूँढ़ने लगती है। ऐसी गर्मी में छाया भी कहीं नजर नहीं आती। वह या तो कहीं घने जंगल में बैठी होती है या फिर किसी घर के अंदर है ।
- कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेसु लजात।
कहिहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥
अर्थ: इस दोहे में कवि ने उस नायिका की मन:स्थिति का चित्रण किया है ।जो अपने प्रेमी के लिए संदेश भेजना चाहती है। नायिका को इतना लम्बा संदेश भेजना है कि वह कागज पर समा नहीं पाएगा। लेकिन अपने संदेशवाहक के सामने उसे वह सब कहने में शर्म भी आ रही है। नायिका संदेशवाहक से कहती है कि तुम मेरे अत्यंत करीबी हो इसलिए अपने दिल से तुम मेरे दिल की बात कह देना।
- प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ॥
अर्थ :कवि का कहना है कि श्रीकृष्ण ने स्वयं ही ब्रज में चंद्रवंश में जन्म लिया अर्थात अवतार लिया था। बिहारी के पिता का नाम केसवराय था। इसलिए वे कहते हैं कि हे कृष्ण आप तो मेरे पिता समान हैं इसलिए मेरे सारे कष्ट को दूर कीजिए ।
- जपमाला, छापैं, तिलक सरै न एकौ कामु।
मन काँचै नाचै बृथा, साँचै राँचै रामु॥
अर्थ: आडम्बर और ढ़ोंग किसी काम के नहीं होते हैं। मन तो काँच की तरह क्षण भंगुर होता है । जो व्यर्थ में ही नाचता रहता है। माला जपने से, माथे पर तिलक लगाने से या हजार बार राम राम लिखने से कुछ नहीं होता है। इन सबके बदले यदि सच्चे मन से प्रभु की आराधना की जाए तो वह ज्यादा सार्थक होता है।
- नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।
अर्थ: न ही इस काल मे फूल में पराग है ,न तो मीठी मधु ही है ।अगर अभी भौरा फूल की कली में ही खोया रहेगा तो आगे न जाने क्या होगा ।राजा जयसिंह अपने विवाह के बाद रास क्रीड़ा में अपना पूरा समय व्यतीत करने लगे थे । उनका अपने राज्य की तरफ से ध्यान हट गया था, तब बिहारी लाल जी ने यह दोहा सुनाया । इससे राजा फिर से अपने राज्य को ठीक प्रकार से देखने लगे।
- मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा।।
अर्थ: तुम्हारें हाथ में मुरली हो, सर पर मोर मुकुट हो तुम्हारें गले में माला हो और तुम पीली धोती पहने रहो इसी रूप में तुम हमेशस तरह लोगो के भीड़ में होते हुए भी प्रेमी अपनी प्रेमिका को आँखों के जरिये मिलने का संकेत देता हैं ।
- स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा,देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
अर्थ: हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा,-हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो।
- कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।
अर्थ: सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है । सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
- अंग-अंग नग जगमगत,दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।
अर्थ: नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है,उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।
- कब कौ टेरतु दीन रट, होत न स्याम सहाइ।
तुमहूँ लागी जगत-गुरु, जग नाइक, जग बाइ।।
अर्थ: हे प्रभु ! मैं कितने समय से दीन होकर आपको पुकार रहा हूँ और आप मेरी सहायता नहीं करते। हे जगत के गुरु, जगत के स्वामी ऐसा प्रतीत होता है ,मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।
- मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होइ।
पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ।।
अर्थ: मन की इच्छा छोड़ दो।उन्हें तुम अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते। यदि जल से घी निकल आवे, तो रूखी रोटी कोई भी न खाएगा।
- कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्या कोइ।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे। सर पर धन की गठरी बांधकर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।
- झूठे को झूठा मिले, दूंणा बंधे सनेह।
झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह।।
अर्थ: जब झूठे आदमी को दूसरा झूठा आदमी मिलता है तो दूना प्रेम बढ़ता है। पर जब झूठे को एक सच्चा आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है।
- करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।
जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं।।
अर्थ: प्रभु में गुण बहुत हैं – अवगुण कोई नहीं है।जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगुण अपने ही भीतर पाते हैं।
- कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।
बूडा बंस बड़ाइता यों जिनी बूड़े कोइ।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वृक्ष के पास नीम का वृक्ष हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है – चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है । लेकिन बांस अपनी लम्बाई ,बडेपन, बड़प्पन के कारण डूब जाता है। इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए। संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए-आपने गर्व में ही न रहना चाहिए।
- क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।
पांहनि बोई पृथमीं,पंडित पाड़ी बात।।
अर्थ: यह संसार काजल की कोठरी है, इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं। पंडितों ने पृथ्वीपर पत्थर की मूर्तियाँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है।
- मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई।।
अर्थ: मूर्ख का साथ मत करो।मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता डूब जाता है । संगति का प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बूँद केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है।
- ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।
सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ।।
अर्थ: यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करेंगे।
Sant Kabir Das Dohe In Hindi With Meaning
- कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फल होई।
चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु की संगति कभी निष्फल नहीं होती। चन्दन का वृक्ष यदि छोटा – वामन – बौना भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वृक्ष नहीं कहेगा। वह सुवासित ही रहेगा और अपने परिवेश को सुगंध ही देगा। आपने आस-पास को खुशबू से ही भरेगा।
- जानि बूझि साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह।
ताकी संगति रामजी, सुपिनै ही जिनि देहु।।
अर्थ: जो जानबूझ कर सत्य का साथ छोड़ देते हैं झूठ से प्रेम करते हैं हे भगवान् ऐसे लोगों की संगति हमें स्वप्न में भी न देना।
- मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।
जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति।।
अर्थ: मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहंकार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से चला गया अब आसन पर उसकी भस्म -विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया।
- तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत।
सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करंत।।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसे वृक्ष के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल देता हो ।जिसकी छाया शीतल हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों।
- काची काया मन अथिर थिर थिर काम करंत।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त।।
अर्थ: शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तुम इन्हें स्थिर मान कर काम करते हो। इन्हें अनश्वर मानते हो, मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है, मगन रहता है ,उतना ही काल अर्थात मृत्यु उस पर हँसता है। मृत्यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है, कितनी दुखभरी बात है।
- जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी।
अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है। जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता, ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं। आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है। अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है ,जब देह विलीन होती है- वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है। एकाकार हो जाती है।
- तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की देखी।
मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे।।
अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है। किन्तु मैं आंखों देखा सच ही कहता और लिखता हूँ। कबीर पढे-लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी। मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख देते हो? जितने सरल बनोगे उलझन से उतने ही दूर हो पाओगे।
- मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।
अर्थ: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं।यदि मनुष्य मन में हार गया ,निराश हो गया तो पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है। ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा सकते हैं, यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे।
- पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।
कहै कबीर कासों कहूं ये ही दुःख का मूल।।
अर्थ: बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला। कबीर कहते हैं कि’ किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दुखों की जड़ है ,ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो मन का संशय न मिटा सके’?
- प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई।
राजा परजा जेहि रुचे सीस देहि ले जाई।।
अर्थ: प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा -यदि प्यार पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा। त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता। प्रेम गहन- सघन भावना है ,खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं।
- हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार।
कौतिकहारा भी जले कासों करूं पुकार।।
अर्थ: दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है, उनमें आग लगाने वाला भी एक दिन जल जाता है। समय आने पर उस दृश्य को देखने वाला दर्शक भी जल जाता है। जब सब का अंत यही हो तो पनी पुकार किसको दू? किससे गुहार करूं-विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे हैं।सभी का अंत एक है।
- मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग,
तासों तो कौआ भला तन मन एकही रंग।
अर्थ: बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला -कपट से भरा है, उससे तो कौआ भला है जिसका तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है।
- कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं।
पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं।।
अर्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के, जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं। सब सांसारिक सम्बन्ध यहीं छूट जाने वाले हैं।
- देह धरे का दंड है सब काहू को होय।
ज्ञानी भुगते ज्ञान से अज्ञानी भुगते रोय।।
अर्थ: देह धारण करने का दंड -भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है। अंतर इतना ही है कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दुःख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है जबकि अज्ञानी रोते हुए – दुखी मन से सब कुछ झेलता है।
- हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध।
कबीर परखै साध को ताका मता अगाध।।
अर्थ: हीरे की परख जौहरी जानता है-शब्द के सार-असार को परखने वाला विवेकी साधु -सज्जन होता है । कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत- अधिक गहन गंभीर है।
- एकही बार परखिये ना वा बारम्बार।
बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार।।
अर्थ: किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न होगी। रेत को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दूर न होगी, इसी प्रकार मूढ़ दुर्जन को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दुष्टता से भरा वैसा ही मिलेगा। किन्तु सही व्यक्ति की परख एक बार में ही हो जाती है।
- पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत।
सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत।।
अर्थ: पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है।चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला ही क्यों न हो। फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सूर्य के तेज के समान चमकती है।
- जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
अर्थ: जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो उन्हें जो चाहे वो पा लेते हैं जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं।
- कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
अर्थ: जब तक यह देह है तब तक तू कुछ न कुछ देता रह।जब देह धूल में मिल जायगी, तब कौन कहेगा कि ‘दो’।
- देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।।
अर्थ: मरने के पश्चात् तुमसे कौन देने को कहेगा ? अतः निश्चित पूर्वक परोपकार करो, यही जीवन का फल है।
- या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
अर्थ: इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।
- ऐसी बनी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।।
अर्थ: मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।
- गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।।
अर्थ: जो गाँठ में बाँध रखा है, उसे हाथ में ला, और जो हाथ में हो उसे परोपकार में लगा। नर-शरीर के पश्चात् इतर खानियों में बाजार-व्यापारी कोई नहीं है, लेना हो सो यही ले-लो।
- धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।।
अर्थ: धर्म परोपकार, दान सेवा करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है,परन्तु उसका जल घटना नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।
- कहते को कही जान दे, गुरु की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।।
अर्थ: उल्टी-पल्टी बात बकने वाले को बकते जाने दो, तू गुरु की ही शिक्षा धारण कर। साकट दुष्टोंतथा कुत्तों को उलट कर उत्तर न दो।
- कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।।
अर्थ: गुरु कबीर साधुओं से कहते हैं कि वहाँ पर मत जाओ, जहाँ पर पूर्व के कुल-कुटुम्ब का सम्बन्ध हो। क्योंकि वे लोग आपकी साधुता के महत्व को नहीं जानेंगे, केवल शारीरिक पिता का नाम लेंगे ‘अमुक का लड़का आया है’।
- जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।।
अर्थ: ‘आहारशुध्दी:’ जैसे खाय अन्न, वैसे बने मन्न लोक प्रचलित कहावत है और मनुष्य जैसी संगत करके जैसे उपदेश पायेगा, वैसे ही स्वयं बात करेगा। अतएव आहाविहार एवं संगत ठीक रखो।
- कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ सिध्द को गाँव।
स्वामी कहै न बैठना, फिर-फिर पूछै नाँव।।
अर्थ: अपने को सर्वोपरि मानने वाले अभिमानी सिध्दों के स्थान पर भी मत जाओ। क्योंकि स्वामीजी ठीक से बैठने तक की बात नहीं कहेंगे, बारम्बार नाम पूछते रहेंगे।
- इष्ट मिले अरु मन मिले, मिले सकल रस रीति।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।।
अर्थ: उपास्य, उपासना-पध्दति, सम्पूर्ण रीति-रिवाज और मन जहाँ पर मिले, वहीँ पर जाना सन्तों को प्रियकर होना चाहिए।
- कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।।
अर्थ: सन्तों के साधी विवेक-वैराग्य, दया, क्षमा, समता आदि का दल जब परिपूर्ण रूप से ह्रदय में आया। तब सन्तों ने इद्रियों को रोककर शरीर की व्याधियों को धूल कर दिया। भावार्थात् तन-मन को वश में कर लिया।
- गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै।
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परै।
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।।
अर्थ: यदि अपने ह्रदय में थोड़ी भी सहन शक्ति हो, ओ मिली हुई गली भारी ज्ञान है। सहन करने से करोड़ों काम संसार में सुधर जाते हैं। और शत्रु आकर पैरों में पड़ता है। यदि ज्ञान ह्रदय में आ जाय, तो मिली हुई गाली से अपनी क्या हानि है ?
- गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
अर्थ: गाली से झगड़ा सन्ताप एवं मरने मारने तक की बात आ जाती है। इससे अपनी हार मानकर जो विरक्त हो चलता है, वह सन्त है, और गाली गलौच एवं झगड़े में जो व्यक्ति मरता है, वह नीच है।
- बहते को मत बहन दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।
अर्थ: बहते हुए को मत बहने दो, हाथ पकड़ कर उसको मानवता की भूमिका पर निकाल लो। यदि वह कहा-सुना न माने, तो भी निर्णय के दो वचन और सुना दो।
- बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
अर्थ: हे दास ! तू सद्गुरु की सेवा कर, तब स्वरूप-साक्षात्कार हो सकता है। इस मनुष्य जन्म का उत्तम अवसर फिर से बारम्बार न मिलेगा।
- बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बनजारे का बैल ज्यों, पैडा माही मीच।।
अर्थ: हे नीच मनुष्य ! सुन, मैं बारम्बार तेरे से कहता हूं। जैसे व्यापारी का बैल बीच मार्ग में ही मार जाता है। वैसे तू भी अचानक एक दिन मर जाएगा।
- मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।
है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय।।
अर्थ: मन-राजा बड़ा भारी व्यापारी बना और विषयों का टांडा बहुत सौदा जाकर लाद लिया। भोगों-एश्वर्यों में लाभ है-लोग कह रहे हैं, परन्तु इसमें पड़कर मानवता की पूँजी भी विनष्ट हो जाती है।
- बनिजारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो चहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरु उपदेश।।
अर्थ: सौदागरों के बैल जैसे पीठ पर शक्कर लाद कर भी भूसा खाते हुए चारों और फेरि करते है। इस प्रकार इस प्रकार यथार्थ सद्गुरु के उपदेश बिना ज्ञान कहते हुए भी विषय – प्रपंचो में उलझे हुए मनुष्य नष्ट होते है।
- जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश।
तन – मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।।
अर्थ: शरीर रहते हुए तो कोई यथार्थ ज्ञान की बात समझता नहीं, और मार जाने पर इन्हे कौन उपदेश करने जायगा। जिसे अपने तन मन की की ही सुधि -बूधी नहीं हैं, उसको क्या उपदेश किया?
- जिही जिवरी से जाग बँधा, तु जनी बँधे कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।
अर्थ: जिस भ्रम तथा मोह की रस्सी से जगत के जीव बंधे है। हे कल्याण इच्छुक ! तू उसमें मत बंध। नमक के बिना जैसे आटा फीका हो जाता है। वैसे सोने के समान तुम्हारा उत्तम नर-शरीर भजन बिना व्यर्थ जा रहा हैं।
- बुरा जो देखन मैं देखन चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ: जब मैं इस दुनिया में बुराई खोजने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। पर फिर जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि दुनिया में मुझसे बुरा और कोई नहीं हैं।
- पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
अर्थ: संत कबीरदासजी कहते हैं की बड़ी बड़ी क़िताबे पढ़कर कितने लोग दुनिया से चले गये लेकिन सभी विद्वान नहीं बन सके। कबीरजी का यह मानना हैं की कोई भी व्यक्ति प्यार को अच्छी तरह समझ ले तो वही दुनिया का सबसे बड़ा ज्ञानी होता हैं।
- साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय।
सार – सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।।
अर्थ: जैसे अनाज साफ करने वाला सूप होता हैं वैसे इस दुनिया में सज्जनों की जरुरत हैं जो सार्थक चीजों को बचा ले और निरर्थक को चीजों को निकाल दे।
- माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।
अर्थ: जब कोई व्यक्ति काफ़ी समय तक हाथ में मोती की माला लेकर घुमाता हैं लेकिन उसका भाव नहीं बदलता। संत कबीरदास ऐसे इन्सान को एक सलाह देते हैं की हाथ में मोतियों की माला को फेरना छोड़कर मन के मोती को बदलो।
- जाति न पूछो साधू की, पुच लीजिए ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
अर्थ: सज्जन और ज्ञानी की जाति पूछने अच्छा हैं की उसके ज्ञान को समझना चाहिए। जैसे तलवार का किमत होती हैं ना की उसे ढकने वाले खोल की।
- दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
अर्थ: संत कबीरदासजी अपने दोहे में कहते हैं की मनुष्य का यह स्वभाव होता है की वो दुसरे के दोष देखकर और ख़ुश होकर हंसता है। तब उसे अपने अंदर के दोष दिखाई नहीं देते। जिनकी न ही शुरुवात हैं न ही अंत।
- संत ना छाडै संतई, कोटिक मिले असंत।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लिपटत रहत भुजंग।।
अर्थ: सच्चा इंसान वही है जो अपनी सज्जनता कभी नहीं छोड़ता, चाहे कितने ही बुरे लोग उसे क्यों न मिलें, बिलकुल वैसे ही जैसे हज़ारों ज़हरीले सांप चन्दन के पेड़ से लिपटे रहने के बावजूद चन्दन कभी भी विषैला नहीं होता ।
- साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार–सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय।।
अर्थ: एक अच्छे इंसान को सूप जैसा होना चाहिए जो कि अनाज को तो रख ले पर उसके छिलके व दूसरी गैर-ज़रूरी चीज़ों को बाहर कर दे।
- माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे।।
अर्थ: मिट्टी कुम्हार से कहती है कि आज तुम मुझे रौंद रहे हो, पर एक दिन ऐसा भी आयेगा जब तुम भी मिट्टी हो जाओगे और मैं तुम्हें रौंदूंगी।
- काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि जो कल करना है उसे आज करो और जो आज करना है उसे अभी करो। जीवन बहुत छोटा होता है अगर पल भर में समाप्त हो गया तो क्या करोगे।
- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
अर्थ: जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
Kabir Das Ke Dohe in Hindi – कबीर दास जी के दोहे
- जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था -तब प्रभु को न देख पाता था- लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया- ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
अर्थ: कबीर दास जी कहते है अगर हमारा मन शीतल है तो इस संसार में हमारा कोई बैरी नहीं हो सकता। अगर अहंकार छोड़ दें तो हर कोई हम पर दया करने को तैयार हो जाता है।
- दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, दुःख काहे को होय।।
अर्थ: कबीर कहते कि सुख में भगवान को कोई याद नहीं करता लेकिन दुःख में सभी भगवान से प्रार्थना करते है। अगर सुख में भगवान को याद किया जाये तो दुःख क्यों होगा।
- अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।
अर्थ: इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है,वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।
- जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात।।
अर्थ: नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।
- मेरी भाव-बाधा हरौ,राधा नागरि सोइ।
जां तन की झांई परै, स्यामु हरित-दुति होइ।।
अर्थ: कवि बिहारी अपने ग्रंथ के सफल समापन के लिए राधा जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि मेरी सांसारिक बाधाएँ वही चतुर राधा दूर करेंगी। जिनके शरीर की छाया पड़ते ही साँवले कृष्ण हरे रंग के प्रकाश वाले हो जाते हैं। अर्थात–मेरे दुखों का हरण वही चतुर राधा करेंगी। जिनकी झलक दिखने मात्र से साँवले कृष्ण हरे अर्थात प्रसन्न जो जाते हैं।
- कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु।।
अर्थ: जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितना ही यत्न कर ले, पर जैसे पानी से नमक को अलग करना असंभव है। वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना असम्भव है।
- तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।
अर्थ: राधा को यूँ प्रतीत हो रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है -हे राधिका अच्छे से जान लो,कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे । क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।
- पत्रा ही तिथि पाइये,वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।
अर्थ: नायिका के घर के चारों ओर पंचांग से ही तिथि ज्ञात की जा सकती है । क्योंकि नायिका के मुख की सुंदरता का प्रकाश वहाँ सदा फैला रहता है । जिससे वहां सदा पूर्णिमा का आभास होता है।
- कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा,विपत्ति-बिदारनहार।।
अर्थ: भक्त श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोड़ एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं । जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।
- कहा कहूँ बाकी दसा,हरि प्राननु के ईस।
विरह-ज्वाल जरिबो लखै,मरिबौ भई असीस।।
अर्थ: नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ,विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए आशीष होगा।
- जपमाला,छापें,तिलक सरै न एकौकामु।
मन कांचे नाचै वृथा,सांचे राचै रामु।।
अर्थ: आडंबरों की व्यर्थता सिद्ध करते हुए कवि कहते हैं कि नाम जपने की माला से या माथे पर तिलक लगाने से एक भी काम सिद्ध नहीं हो सकता। यदि मन कच्चा है तो वह व्यर्थ ही सांसारिक विषयों में नाचता रहेगा। सच्चा मन ही राम में रम सकता है।
- घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
अर्थ: लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
- मैं समुझयौ निरधार,यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।
अर्थ: कवि कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है ।
- मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झांई परै, श्याम हरित-दुति होय।।
अर्थ: इस दोहे के दो अर्थ हैं इस दोहे के में कवि श्री कृष्ण के साथ विराजमान होने वाली श्रृंगार की अधिष्ठात्री देवी राधिका जी की स्तुति करते हैं। राधा जी के पीले शरीर की छाया नीले कृष्ण पर पड़ने से वे हरे लगने लगते है। दूसरा अर्थ है कि राधा की छाया पड़ने से कृष्ण हरित (प्रसन्न) हो उठते हैं।
- सोहत ओढ़ैं पीतु पटु स्याम, सलौनैं गात।
मनौ नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात।।
अर्थ: श्री कृष्ण के साँवले शरीर की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा है कि, कृष्ण के साँवले शरीर पर पीला वस्त्र ऐसी शोभा दे रहा है, जैसे नीलमणि पहाड़ पर सुबह की सूरज की किरणें पड़ रही हो।
- नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल।
अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।।
अर्थ: कवि ने राजा को व्यगं करते हुए यह कहा कि विवाह के बाद वे अपने जीवन में रसमय हो गये हैं और विकास कार्य की तरफ उनका कोई ध्यान नहीं हैं और राजकीय कार्य से भी दूर हैं ऐसे मैं कौन राज्य भार सम्भालेगा।
- घर घर तुरकिनि हिन्दुनी देतिं असीस सराहि।
पतिनु राति चादर चुरी तैं राखो जयसाहि।।
अर्थ: कवि जी की बात सुनकर राजा जयसिंह को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने अपनी गलती सुधारते हुए अपने राज्य की रक्षा की।
- दृग उरझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर-चित्त प्रीति।
परिति गांठि दुरजन-हियै, दई नई यह रीति ।।
अर्थ: प्रेम की रीति अनूठी है। इसमें उलझते तो नयन है, पर परिवार टूट जाते हैं, प्रेम की यह रीति नई है इससे चतुर प्रेमियों के चित्त तो जुड़ जाते हैं पर दुष्टों के हृदय में गांठ पड़ जाती है।
- कहलाने एकत बसत अहि मयूर, मृग बाघ।
जगतु तपोवन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ।।
अर्थ: भीषण गर्मी से बेहाल जानवर एक ही स्थान पर बैठे हैं। मोर और सांप एक साथ बैठे हैं। हिरण और बाघ एक साथ बैठे हैं। कवि को लगता है कि गर्मी के कारण जंगल किसी तपोवन की तरह हो गया है। जैसे तपोवन में विभिन्न इंसान आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठते हैं, उसी तरह गर्मी से बेहाल ये पशु भी आपसी द्वेषों को भुलाकर एक साथ बैठे हैं।
- कनक कनक ते सौं गुनी मादकता अधिकाय।
इहिं खाएं बौराय नर, इहिं पाएं बौराय।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि सोने में धतूरे से सौ गुनी मादकता अधिक है। धतूरे को तो खाने के बाद व्यक्ति पगला जाता है, सोने को तो पाते ही व्यक्ति पागल अर्थात अभिमानी हो जाता है।
- अधर धरत हरि कै परत, ओठ-डीठि-पट जोति।
हरि बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुष-रँग होति।।
अर्थ: राधा जी की सखी कृष्ण जी के मुरली से प्रभावित होकर उनसे कहती है कि जब श्री कृष्ण हरे बांस की बांसुरी को बजाने के लिए, लालिमा लिए हुए अपने होठों पर रखते है और जब उनके काले नैनो का रंग और श्री कृष्ण जी के द्वारा पहने हुए पीले रंग के वस्त्रों का पीला रंग, उस हरे बांस की बांसुरी पर पड़ता है तो वह हरे रंग के बांस की बांसुरी इंद्रधनुष के समान सात रंगों में चमक उठती हैं अर्थात बहुत सुंदर एवं आकर्षक प्रतीत होती है।
- कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।
अर्थ: कवि इस दोहे के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कान्हा मैं कब से तुम्हे व्याकुल होकर पुकार रहा हूँ और तुम हो कि मेरी पुकार सुनकर भी मेरीमदद नहीं कर रहे हो, मानो आप को भी संसार की हवा लग गयी है अर्थात आप भी संसार की भांति स्वार्थी हो गए हो।
- तो पर वारौं उरबसी,सुनि राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसीं, ह्वै उरबसी समान।।
अर्थ: राधा को ऐसा लग रहा है कि श्रीकृष्ण किसी अन्य स्त्री के प्रेम में बंध गए हैं। राधा की सखी उन्हें समझाते हुए कहती है ; हे राधिका अच्छे से जान लो, कृष्ण तुम पर उर्वशी अप्सरा को भी न्योछावर कर देंगे क्योंकि तुम कृष्ण के हृदय में उरबसी आभूषण के समान बसी हुई हो।
- मोर मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल।
यहि बानिक मो मन बसौ सदा बिहारीलाल।।
अर्थ: कवि अपने इस दोहे में कहते हैं हे कान्हा, तुम्हारें हाथ में मुरली हो, सर पर मोर मुकुट हो तुम्हारें गले में माला हो और तुम पीले रंग की धोती पहने रहो इसी रूप में तुम हमेशा मेरे मन में बसते हो।
- लिखन बैठि जाकी सबी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के, चतुर चितेरे कूर।।
अर्थ: इस दोहे में कवि ने नायिका के अतिशय सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा है कि नायिका के सौंदर्य का चित्रांकन करने को गर्वीले ओर अभिमानी चित्रकार आए पर उन सबका गर्व चूर-चूर हो गया। कोई भी उसके सौंदर्य का वास्तविक चित्रण नहीं कर पाया क्योंकि क्षण-प्रतिक्षण उसका सौंदर्य बढ़ता ही जा रहा था।
- बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सौंह करैं भौंहनु हँसै, दैन कहैं नटि जाइ।।
अर्थ: इस दोहे में कवि ने गोपियों द्वारा कृष्ण की बाँसुरी चुराए जाने का वर्णन किया है। गोपियों ने कृष्ण की मुरली इसलिए छुपा दीै । ताकि इसी बहाने उन्हें कृष्ण से बातें करने का मौका मिल जाए। साथ में गोपियाँ कृष्ण के सामने नखरे भी दिखा रही हैं। वे अपनी भौहों से तो कसमे खा रही हैं । लेकिन उनके मुँह से ना ही निकलता है।
- जप माला छापा तिलक, सरै ना एकौ कामु।
मन-काँचे नाचै वृथा, सांचे रांचे रामु।।
अर्थ: इस दोहे में कवि जी कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति करने में बाहरी आडंबरों जैसे कि समाज को दिखाने के लिए पूजा करना, लोगों को दिखाने के लिए गले में अनेक प्रकार की मालाओं को धारण करना, और अपने आप को ईश्वर का बहुत बड़ा भक्त दिखाने के लिए तरह-तरह के तिलक छापे लगाना आदि से कोई भी काम पूरा नहीं होता है।
- मोहन-मूरति स्याम की अति अद्भुत गति जोई।
बसतु सु चित्त अन्तर, तऊ प्रतिबिम्बितु जग होइ।।
अर्थ: कवि जी ने इस दोहे में कहा है कि कृष्ण की मनमोहक मूर्ति की गति अनुपम है। कृष्ण की छवि बसी तो हृदय में है और उसका प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण संसार मे पड़ रहा है।
- चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गंभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।।
अर्थ: इस दोहे में कवि जी कहते हैं, यह जोड़ी चिरजीवी हो। इनमें क्यों न गहरा प्रेम हो, एक वृषभानु की पुत्री हैं, दूसरे बलराम के भाई हैं। दूसरा अर्थ है: एक वृषभ (बैल) की अनुजा (बहन) हैं और दूसरे हलधर (बैल) के भाई हैं। यहाँ श्लेष अलंकार है।
- कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।
अर्थ: कवि जी इस दोहे में कहते हैं की कोई भी मनुष्य चाहें कितना भी प्रयास क्यों न कर ले फिर भी उसका स्वभाव नहीं बदल सकता जैसे पानी नल में उपर तक तो चढ़ जाता हैं लेकिन फिर भी उसका स्वभाव हैं नहीं बदलता और वो बहता नीचे तरफ ही है।
- काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन ।
आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा।।
अर्थ: कवि कहते हैं की सुहागन आँखों में काजल मत लगाया करो वरना तुम्हारी आँखें गँड़ासे यानि एक घास काटने के अवजार जैसी हो जाएँगी।
- मैं ही बौरी विरह बस, कै बौरो सब गाँव।
कहा जानि ये कहत हैं, ससिहिं सीतकर नाँव।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं- मैं ही पागल हूँ या सारा गाँव पागल है। ये कैसे कहते हैं कि चन्द्रमा का नाम शीतकर (शीतल करने वाला) है ?
- गिरि तैं ऊंचे रसिक-मन बूढे जहां हजारु।
बहे सदा पसु नरनु कौ प्रेम-पयोधि पगारु।।
अर्थ: इस दोहे में कवि जी कहते हैं कि पर्वत से भी ऊंची रसिकता वाले प्रेमी जन प्रेम के सागर में हज़ार बार डूबने के बाद भी उसकी थाह नहीं ढूंढ पाए, वहीं नर -पशुओं को अर्थात अरसिक प्रवृत्ति के लोगों को वो प्रेम का सागर छोटी खाई के समान प्रतीत होता है।
- बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की छाँहौं चाहति छाँह।।
अर्थ: इस दोहे में कवि जी ने जेठ महीने की गर्मी का चित्रण किया है। जेठ की गरमी इतनी तेज होती है कि छाया भी छाया ढ़ूँढ़ने लगती है। ऐसी गर्मी में छाया भी कहीं नजर नहीं आती। वह या तो कहीं घने जंगल में बैठी होती है या फिर किसी घर के अंदर है ।
- मैं समुझयौ निरधार, यह जगु काँचो कांच सौ।
एकै रूपु अपर, प्रतिबिम्बित लखियतु जहाँ।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि इस सत्य को मैंने जान लिया है कि यह संसार निराधार है। यह काँच के समान कच्चा है अर्थात मिथ्या है। कृष्ण का सौन्दर्य अपार है जो सम्पूर्ण संसार मे प्रतिबिम्बित हो रहा है।
- तौ लगु या मन-सदन मैं, हरि आवै कीन्हि बाट।
विकट जटे जौं लगु निपट, खुटै न कपट-कपाट।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि जिस प्रकार घर का दरवाजा बंद होने पर उसमें कोई तब तक प्रवेश नहीं कर सकता है जब तक कि उसका दरवाजा खोला ना जाए, इसी प्रकार जब तक मनुष्य अपने मन में छल और कपट के दरवाजे खोल नहीं देता तब तक उस मनुष्य के मन में भगवान प्रवेश नहीं कर सकते हैं। अर्थात यदि मनुष्य ईश्वर की प्राप्ति चाहता है तो उसको अपने मन से छल कपट को दूर करके अपने मन निर्मल करना होगा।
- सुनी पथिक मुँह माह निसि लुवैं चलैं वहि ग्राम।
बिनु पूँछे, बिनु ही कहे, जरति बिचारी बाम।।
अर्थ: विरह की आग में जल रही प्रेमिका के अंदर इतनी अग्नि होती है मानो माघ के माह (फरवरी के महीने ) में में भी लू सी ताप रही हो जैसे की वो किसी लुहार की धौकनी हो।
- नीकी लागि अनाकनी, फीकी परी गोहारि ।
तज्यो मनो तारन बिरद, बारक बारनि तारि ।।
अर्थ: कवि जी श्री कृष्ण से कहते हैं कि कान्हा शायद तुम्हेँ भी अब अनदेखा करना अच्छा लगने लगा हैं या फिर मेरी पुकार फीकी पड़ गयी हैं मुझे लगता है की हाथी को तरने के बाद तुमने अपने भक्तों की मदत करना छोड़ दिया।
- अंग-अंग नग जगमगत, दीपसिखा सी देह।
दिया बढ़ाए हू रहै, बड़ौ उज्यारौ गेह।।
अर्थ: कवि जी इस दोहे में कहते हैं कि नायिका का प्रत्येक अंग रत्न की भाँति जगमगा रहा है, उसका तन दीपक की शिखा की भाँति झिलमिलाता है अतः दिया बुझा देने पर भी घर मे उजाला बना रहता है।
- या अनुरागी चित्त की,गति समुझे नहिं कोई।
ज्यौं-ज्यौं बूड़े स्याम रंग,त्यौं-त्यौ उज्जलु होइ।।
अर्थ: इस प्रेमी मन की गति को कोई नहीं समझ सकता। जैसे-जैसे यह कृष्ण के रंग में रंगता जाता है, वैसे-वैसे उज्ज्वल होता जाता है अर्थात कृष्ण के प्रेम में रमने के बाद अधिक निर्मल हो जाते हैं।
- जसु अपजसु देखत नहीं देखत सांवल गात।
कहा करौं, लालच-भरे चपल नैन चलि जात ।।
अर्थ: नायिका अपनी विवशता प्रकट करती हुई कहती है कि मेरे नेत्र यश-अपयश की चिंता किये बिना मात्र साँवले-सलोने कृष्ण को ही निहारते रहते हैं। मैं विवश हो जाती हूँ कि क्या करूं क्योंकि कृष्ण के दर्शनों के लालच से भरे मेरे चंचल नयन बार -बार उनकी ओर चल देते हैं।
- कीनैं हुँ कोटिक जतन अब कहि काढ़े कौनु ।
भो मन मोहन-रूपु मिलि पानी मैं कौ लौनु ।।
अर्थ: “जिस प्रकार पानी मे नमक मिल जाता है,उसी प्रकार मेरे हृदय में कृष्ण का रूप समा गया है। अब कोई कितनी भी कोशिश कर ले, पर जैसे पानी से नमक को अलग करना असंभव है वैसे ही मेरे हृदय से कृष्ण का प्रेम मिटाना भी असम्भव है।”
- बढत-बढत संपत्ति-सलिल मन-सरोज बढि जाय ।
घटत-घटत पुनि ना घटे बरु समूल कुमलाय ।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि जिस तालाब में कमल होता है यदि उस तालाब में पानी बढ़ता है तो पानी के बढ़ने के साथ ही साथ कमल की नाल भी बढ़ती चली जाती है लेकिन जब तालाब का पानी उतरने लगता है तो कमल की बढ़ी हुई नाल छोटी नहीं हो पाती है, इसलिए वह पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है। अर्थात मनुष्य द्वारा अर्जित धन का उसके मन पर क्या प्रभाव पड़ता है।
- कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत, लजियात ।
भरे भौन में करत है, नैननु ही सब बात ।।
अर्थ: गुरुजनों की उपस्थिति के कारण कक्ष में नायक-नायिका मुख से वार्तालाप करने में असमर्थ हैं। आंखों के संकेतों के द्वारा नायक नायिका को काम-क्रीड़ा हेतु प्रार्थना करता है, नायिका मना कर देती है, नायक उसकी ना को हाँ समझ कर रीझ जाता है। नायिका उसे खुश देखकर खीझ उठती है। अंत मे दोनों में समझौता हो जाता है। नायक पुनः प्रसन्न हो जाता है। नायक की प्रसन्नता को देखकर नायिका लजा जाती है। इस प्रकार गुरुजनों से भरे भवन में नायक-नायिका नेत्रों से परस्पर बातचीत करते हैं।
- औंधाई सीसी सुलखि, बिरह विथा विलसात ।
बीचहिं सूखि गुलाब गो, छीटों छुयो न गात ।।
अर्थ: कवि जी ने ऐसी नायिका का चित्रण किया है जो अपने नायक से अलग हो गई है और उसके उसके बिरह ज्वाला में जल रही है। ऐसी स्थिति में उस नायिका के सखियां आपस में बात करते हुए कहते हैं कि वह अपने प्रेमी से अलग होकर उसके बिरह की प्रचंड अग्नि में जल रही है। उसकी यह दशा अत्यंत दुखद एवं करुणादायीं है।
- पत्रा ही तिथि पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पुनयौई रहै, आनन-ओप-उजास।।
अर्थ: उस नायिका के घर के चारों ओर पत्रा (पंचांग) ही में तिथि पाई जाती है- तिथि निश्चय कराने के लिए पत्रा ही की शरण लेनी पड़ती है; क्योंकि (उसके) मुख की चमक और प्रकाश से वहाँ सदा पूर्णिमा ही बनी रहती है- उसके मुख की चमक और प्रकाश देखकर लोग भ्रम में पड़ जाते हैं कि पूर्ण चन्द्र की चाँदनी छिटक रही है।
- दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़ै दुख-दंदु।
अधिक अन्धेरो जग करैं मिल मावस रवि चंदु।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि यदि किसी राज्य में दो राजा शासन करेंगे तो उस राज्य की जनता का दोहरा दुख क्यों नहीं बढ़ेगा; अर्थात अवश्य ही बढ़ेगा ? क्योंकि जब एक ही राज्य में दो राजा होंगे तो उस राज्य की प्रजा को दोनों राजाओं की आज्ञाओं का पालन करना पड़ेगा और दोनों राजाओं के लिए सुख सुविधाओं की व्यवस्था करनी पड़ेगी। यह वैसे ही है जैसे अमावस्या की तिथि को सूर्य और चंद्रमा एक ही राशि में मिलकर संपूर्ण संसार को और अधिक अंधकारमय कर देते हैं।
- स्वारथु सुकृतु न, श्रमु वृथा, देखि विहंग विचारि।
बाज पराये पानि परि तू पछिनु न मारि।।
अर्थ: हिन्दू राजा जयशाह, शाहजहाँ की ओर से हिन्दू राजाओं से युद्ध किया करते थे, यह बात कवि को अच्छी नही लगी तो उन्होंने कहा, हे बाज़ ! दूसरे व्यक्ति के अहम की तुष्टि के लिए तुम अपने पक्षियों अर्थात हिंदू राजाओं को मत मारो। विचार करो क्योंकि इससे न तो तुम्हारा कोई स्वार्थ सिद्ध होता है, न यह शुभ कार्य है, तुम तो अपना श्रम ही व्यर्थ कर देते हो
- कोऊ कोरिक संग्रहौ, कोऊ लाख हज़ार।
मो संपति जदुपति सदा, विपत्ति-बिदारनहार।।
अर्थ: कवि जी श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए कहते हैं कि कोई व्यक्ति करोडो रूपया एकत्र करे या लाख-हज़ार, मेरी दृष्टि में धन का कोई महत्त्व नहीं है। मेरी संपत्ति तो मात्र यादवेन्द्र श्रीकृष्ण हैं जो सदैव मेरी विपत्तियों को नष्ट कर देते हैं।
Short Poems of Kabir Das in Hindi
- कहा कहूँ बाकी दसा, हरि प्राननु के ईस ।
विरह-ज्वाल जरिबो लखै, मरिबौ भई असीस।।
अर्थ: नायिका की सखी नायक से कहती है- हे नायिका के प्राणेश्वर ! नायिका की दशा के विषय में तुम्हें क्या बताऊँ, विरह-अग्नि में जलता देखती हूँ तो अनुभव करती हूँ कि इस विरह पीड़ा से तो मर जाना उसके लिए अच्छा होगा।
- प्रगट भए द्विजराज कुल, सुबस बसे ब्रज आइ।
मेरे हरौ कलेस सब, केसव केसवराइ।।
अर्थ: कवि जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने स्वयं ही ब्रज में चंद्रवंश में जन्म लिया अर्थात अवतार लिया था। इसलिए वो कहते हैं कि हे कृष्ण आप तो मेरे पिता समान हैं इसलिए मेरे सारे कष्ट को दूर कीजिए ।
- घरु-घरु डोलत दीन ह्वै,जनु-जनु जाचतु जाइ।
दियें लोभ-चसमा चखनु लघु पुनि बड़ौ लखाई।।
अर्थ: कवि जी कहते है कि लोभी व्यक्ति के व्यवहार का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं कि लोभी ब्यक्ति दीन-हीन बनकर घर-घर घूमता है और प्रत्येक व्यक्ति से याचना करता रहता है। लोभ का चश्मा आंखों पर लगा लेने के कारण उसे निम्न व्यक्ति भी बड़ा दिखने लगता है अर्थात लालची व्यक्ति विवेकहीन होकर योग्य-अयोग्य व्यक्ति को भी नहीं पहचान पाता।
- राम-नाम के पैंतरे, देबे को कछु नाही।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौस रही मन माहि।
अर्थ: सदगुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है। मेरे पास क्या है उस सममोल का जो गुरु को दु ? क्या लेकर संतोष करू उनका ? मन की अभिलाषा मन में ही रह गई ,क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ?
- सद्गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत-दिखावहार।।
अर्थ: अंत नही सद्गुरु की महिमा का , और अंत नही उनके उपकारों का ,मेरे अनंत लोचन खोल दिये ,जिनसे निरंतर मैं अनंत को देख रहा हूं।
- ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव।
दुन्यु बुडे धार में , चढ़ि पथार की नाव।।
अर्थ: लालच का दाव दाव दोनो पर चल गया , न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनो ही मझधार में डूब गए।
- पिछें लागा जाइ था ,लोक बेद के साथि।
आगें थैं सतगुरु मिल्या , दीपक दीया हाथि।।
अर्थ: मैं भी औरों की तरह भटक रहा था गलियों में। मार्ग में गुरु मिल गए, सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया।कहने का मतलब यह है कि गुरु के मिलते ही मुझे जीवन का असली ज्ञान हुआ।
- सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या प्रसंग बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग ।।
अर्थ: एक दिन सतगुरु हमसे इस तरह प्रसन्न हुए कि एक प्रसंग कह डाला, रस से भरा हुआ था और प्रेम से परिपूर्ण था । अंग अंग भीग गया उस प्रसंग में। गुरु के ज्ञान ने मेरे मन को सम्मोहित कर डाला ।
- “हूँ” मुझमे कही भी नही रह गयी ।
उसपर न्योछावर होते होते- मै समर्पित हो गई हूं।
अर्थ: मैं तो मुझ में रहा ही नहीं प्रेम की अभिलाषा में मैं इतनी समर्पित हुई कि मैं तेरी यू कह गई हूं जिधर भी नजर जाती है बस तू ही तू दिख रहा है इस प्रसंग में कबीर ने मानव और ईश्वर से प्रेम का जिक्र किया है । भक्ति में लीन को कबीर को ईश्वर हर जगह दिख रहे है । अहम को त्याग दिया है इस प्रेम ने ।
- ‘कबीर ‘ सूता क्या करेँ काहे न देखे जागि।
जाको संग बिछुड़ीया, ताहि के संग लागि।
अर्थ: कभी इन पंक्तियों के माध्यम से कबीर अपने साथियों को जगा रहे हैं, और कह रहे हैं उठ और जाग जा तेरे साथी तेरे इसी आलस की वजह से बिछुड़ चुके है ।अपने साथियों को देख ले यात्रा लंबी है,जाग और उनका साथ पकड़ ले।
- राम पियारा छाड़ि करीब, करै आन का जाप।
बेसयां केरा पूत ज्यूँ, कहै कौन सू बाप।।
अर्थ: प्रियतम राम को छोड़कर जो दूसरी देवी-देवताओं को जपता है, उनकी आराधना करता है उसे क्या कहा जाए ? वैश्या का पुत्र किसे अपना बाप कहे ? अनन्यता के बिना गति नही।
- अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसौ कहिंया।
कै हरि आयां भाजिसी, कै हरि ही पास गयां।
अर्थ: संदेशा भेजते भेजते मेरा अंदेशा जाने का नहीं , अंतर की कसक दूर होने की नहीं । यह है कि कि प्रियतम मिलेगा या नहीं और कब मिलेगा हाँ ये अंदेशा दूर हो सकता है दो तरह से – या तो हरि स्वयं आ जाये , या मैं किसी तरह हरि के पास पहुँच जाऊ।
- यहुँ तन जालो मसि करों , लिखों राम् का नाउँ ।
लेखणी करूं करकं की , लिखि-लिखि राम पठाऊँ।।
अर्थ: तन को जलाकर शाही बना लूंगी , और जो कंकाल रह जाएगा उसकी लेखनी तैयार कर लूंगी ।उससे प्रेम की पाती लिख लिख कर अपने प्यारे राम को भेजती रहूंगी।ऐसे होंगे मेरे संदेश।
- बिरह-भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोई।
राम-बियोग ना जीबै जिवै तो बौरा होइ।।
अर्थ: बिरह का यह भुजंग अंतर में बस रहा है। डंसता ही रहता है सदा।जिस दिन से मैं राम से अलग हुवा हु वेदना मुझे सत्ता रही है । राम का वियोगी जीवित नही रहता और राह जाए तो पागल हो जाता है।
- सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित।
और न कोई सुणि सकै, कै साई के चित्त।।
अर्थ: शरीर यह रबाब सरोद बन गया है- एक एक नस तांत हो गई है।और बजाने वाला कौन है इसका ? वही विरह , इसे या तो वो साईं सुनता है , या फिर बिरह में डूबा हुआ यह चित।
- अंषडियां झाई पड़ी , पंथ निहारि- निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।
अर्थ: बाट जोहते-जोहते आंखों में झाई पड़ गई है, राम को पुकारते- पुकारते जीभ में छाले पड़ गए है।
[ पुकार यह आर्त न होकर विरह के कारण तप्त हो गई है, और इसलिए जीभ पर छाले पड़ गए है। ]
- इस तन का दिवा करौ , बाती मेल्यूं जीव।
लोही सींची तेल ज्यूँ, कब मुख देखौ पीव।।
अर्थ: इस तन का दिया बना लूँ, जिसमें प्राणों की बत्ती हो ओम और तेल की जगह तिल-तिल बलता रहे रक्त का एक रक कण। कितना अच्छा हो कि उस दिए में दिखाई दे जाए कभी प्रियतम का मुखड़ा।
- कबीर हँसणाँ दूरी करि, करि रोवण सौ चित।
बिन रोयां क्यूँ पाइए , प्रेम पियारा मित’।।
अर्थ: कबीर कहते है – वह प्यारा मित्र बिन रोये कैसे किसीको मिल सकता है ?
[रोने-रोने में अंतर है।दुनियां को किसी चीज़ के लिए रोना, जो नही मिलती या मिलने पर खो जाती है, और राम के विरह का रोना, जो सुखदायक होता है।]
- जो रोऊ तौ बल घटै, हँसों तो राम रिसाई।
मन ही माहि बिसूरणा , ज्यूँ घुण काठहि खाई।।
अर्थ: अगर रोता हूं तो बल घट जाता है विरह तब कैसे सहन होगा ? और हंसता हु तो मेरे राम रीसा जाएंगे । तो न रोते बनता है और न हसंते । मन ही मन बिसरना अच्छा ,जिससे सबकुछ खोखला हो जाये, जैसे काठ घुन।।
- हांसी खेलौ हरि मिलै, कौण सहै पारषण।
काम क्रोध तृष्णा तजै, तोहि मिलै भगवान।
अर्थ: हंसी खेल में ही हरी से मिलन हो जाए तो कौन व्यथा कि शान पर चढ़ना चाहेगा ।भगवान तो तभी मिलते हैं जबकि काम क्रोध और कृष्णा को त्याग दिया जाए।
- पूत पियारौ पिता कै , गौहनि लागो धाई।
लोभ-मिठाई हाथि दे, आपण गयो भुलाई।।
अर्थ: पिता का प्यारा पुत्र दौड़ कर उसके पीछे लग गया । हाथ में लोग की मिठाई दे दी पिता ने। उस मिठाई में ही रम गया उसका मन । अपने आप को भी भूल गया ।पिता का साथ छूट गया।।
- परबती परबती मै फिरया, नैन गवाये रोइ।
सो बूटी पाऊं नहि, जातै जीवनि होइ।।
अर्थ: एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर में घूमता रहा । भटकता फिरा रो-रो कर आंखें भी गवां दी । वह संजीवनी बूटी कहीं नहीं मिल रही जिससे कि जीवन यह जीवन बन जाए। व्यर्थता बदल जाए सार्थकता में।।
- सुखिया सब संसार है , खावै और सौवें।
दुखिया दास कबीर है, जागे अरू रोवै।।
अर्थ: सारा ही संसार सुखी दिख रहा है , अपने आपमें मस्त हैं वह ,खूब खाता है और खूब सोता है।दुखिया तो यह कबीरदास है, जो आठों पहर जागता है और रोता ही रहता है।
- जा कारणि में ढूंढ़ती , सन्मुख मिलिया आई।
धन मैली पिव उज्जवला , लागि न सकै पाई।।
अर्थ: जीवात्मा कहती है जिस कारण मैं उसे इतने दिनों से ढूंढ रही थी वह सहज ही मिल गया । सामने ही तो था, पर उसके पैर को कैसे पकड़ू मैं तो मैली हूं , और प्रियतम कितना उज्जला है । सो संकोच हो रहा है ।
- देवल माहैं देहुरी , तिल जे है बिस्तार।
माहैं पाती माहि जल, माहैं पूजणहार।।
अर्थ: मन्दिर के अंदर ही देहरी है एक , विस्तार में तिल के मानिंद । वही पर पते और फूल चढ़ाने को रखे हैं , और पूजानेवाला भी तो वही पर है।
[अंतरात्मा में ही मंदिर है , वही पर देवता है , वही पूजा की सामग्री है और वही पुजारी मौजुद है।]
- भारी कहौ तो बहु डरौ , हल्का कहूं तो झूठ।
मैं का जणो राम कुं , नैनूं कबहूं न दीठ।।
अर्थ: अपने राम को मैं यदि भारी कहता हूं तो डर लगता है। इसलिए कि कितना भारी है वह। और उसे हल्का कहता हूं तो यह झूठ होगा मैं क्या जानू उसे कि वह कैसा है ? इन आंखों से तो उसे कभी देखा नहीं।सचमुच वह अकल्पनीय है।
- पहुचेंगे तब कहेंगे , उमड़ेंगे उस ठाईं।
अजहूं बेरा समंद मैं , बोली बिगूचै कांई।।
अर्थ: जब उस और पर पहुंच जाएंगे तब देखेंगे क्या कहना । अभी तो इतना ही है कि वहां आनंद ही आनंद उमड़ेगा । और उसमें यह मन खूब खेलेगा । जबकि बेड़ा बीच समंदर में है तब व्यर्थ में बोल बोल कर क्यों किसी को दुविधा में डाला जाए की उस पर हम पहुंच गए हैं।
- ‘कबीर’ रेख स्यूदूर की , काजल दिया न जाई।
नैनूं रमैया रमि रह्या , दूजा कहाँ समाई।।
अर्थ: कबीर कहते हैं आंखों में काजल कैसे लगाया जाए जबकि उनमें सिंदूर की जैसी रेख उभर आई है? मेरा रमैया नैना में रम गया है। उनमे अब किसी और को बसा लेने ठौर नहीं हैं। {सिंदूर की रेख से आशय है कि वेदना से से रोते रोते आंखें लाल हो गई हैं}
- जबलग भगति सकामता, तबलग निर्फल सेव।
कहै कबीर’ वै क्यूं मिलै, निहकामी निज देव।।
अर्थ: भक्ति जब तक सकाम है ,भगवान की सारी सेवा तब तक निष्फल ही है। निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती है?
- ‘कबीर’ कलिजुग आई करि, कीये बहुत जो मीत।
जिन दिलबंध्या एक सूं , ते सुखु सोवै निचित।।
अर्थ: कलयुग में आकर हमने बहुतों को मित्र बना लिया क्योंकि हानकलीह मित्रों की कोई कमी नहीं पर जिन्होंने अपने दिल को एक से ही बांध लिया वही निश्चित सुख की नींद ले सकते हैं।
- ‘कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाउँ।
गले राम की जेवड़ी जित कैचे तित जाऊं।।
अर्थ: कबीर कहते हैं मैं तो राम का कुत्ता हूं और राम मेरा मुतिया मोती है। गले में राम की जंजीर पड़ी हुई है मैं उधर ही चला जाता हूं जिधर राम ले जाते है। {प्रेम के ऐसे बंधन में मौज ही मौज है}
- परनारी राता फिरैं ,चोरी बिढ़िता खाहि।
दिवस चारि सरसा रहै , आंति समूला जाहि।।
अर्थ: परनारी से जो प्रीत जोड़ते हैं और चोरी की कमाई खाते हैं । भरे ही वह चार दिन पहले फले फूले किंतु अंत में वह जड़ों से नष्ट हो जाते हैं।
- भगति बिगाड़ी कामियां, इंद्री करै स्वादि।
हीरा खोया हाथ थै , जन्म गंवाया बादि।।
अर्थ: भक्ति को कामी लोगों ने बिगाड़ डाला है, इंद्रियों के स्वाद में पड़कर, और हाथ से हीरा गिरा दिया, गंवा दिया । जन्म लेना बेकार ही रहा उनका।
- कामी अमी न भवाई, विष ही कौ लै सोधि।
कुबुद्धि न जाई जीव की , भावै स्यम्भ रहौ प्रमोधि।।
अर्थ: कामी मनुष्य को अमृत पसंद नहीं आता वह तो जगह-जगह विष को खोजता रहता है।कामी कि कुबुद्धि जाती नहीं चाहे स्वयं शंभू भगवान ही उपदेश दे।
- ज्ञानी मूल गवाईयां, आपण भये करता।
ताथै संसारी भला , मन में रहै डरता।।
अर्थ: ज्ञानी ने अहंकार में पड़ कर अपना मूल भी गवा दिया । वह मनाने लगा की मैं ही सब का कर्ताधर्ता हूं ।उससे तो संसारी आदमी अच्छा है क्योंकि वह डरकर तो चलता है कि कहीं कोई भूल ना हो जाए।
- इहि उदार कै कारणे ,जग जांच्यो निस जाम।
स्वामीं-पणो जो सिरि चढयो, सरयो न एको काम।।
अर्थ: इस पेट के लिए दिन-रात साधु का वेश बनाकर वह मांगता फिरा और स्वामी पन्ना उसके सिर पर चढ़ गया।पुरा एक भी काम ना हुवा -ना तो साधु बना और ना स्वामी।।
- कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि धरी खटाई।
राज-दुबरां यौ फिरैं,ज्यूँ हरिहाई गाई।।
अर्थ: कलयुग के स्वामी लोभी हो गए हैं और उनमें विकार आ गया है। जैसे पीतल की बटलोई में खटाई रख देने से। राज द्वारों पर यह लोग मान सम्मान पाने के लिए घूमते रहते हैं जैसे खेतो में बिगड़ैल गाय घुस जाती है।।
- कबीर ‘ कलि खोटी भई , मुनियर मिलै न कोई।
लालच लोभी मसकरा ,तींनकुं आदर होइ।।
अर्थ: कबीर कहते हैं बहुत बुरा हुआ इस कलयुग में, कहीं भी सच्चे मुनि नहीं मिलते।आदर हो रहा है आज लालचियों लोभियों का और मसखरों का।
- ब्राह्मण गुरु जगत का साधु का गुरु नाहि।
उरझि-पुरझि करि मरि रह्या ,चारिउँ बेंदा माहि।।
अर्थ: ब्राह्मण भले ही सारे संसार का गुरु हो पर वह साधु का गुरु नहीं हो सकता । वह क्या गुरु होगा जो चारों वेदों में उलझ उलझ कर ही मर रहा है।
- चतुराई सूवै पढ़ी, सोई पंजर माहि।
फिरि प्रमोधै आन कौ , आपण समझै नाहि।।
अर्थ: चतुराई तो रटते रटते तोते को भी आ गई, फिर भी वह पिंजरे में रहता है दुसरो को उपदेश देता है पर खुद कुछ भी नहीं समझ पाता।।
- ‘कबीर’ इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेड़ की , उत्तरया चाहै पार।।
अर्थ: भेड़ की पूंछ पकड़कर पार उतरना चाहते हैं ये लोग । {अंधे रूढ़ियों में पड़कर धर्म का रहस्य जानना चाहते हैं यह लोग}
- ‘कबीर माया पापणी , फंध ले बैठी हाटि।
सब जग तै फनधै पड्या , गया कबीर कोटी।।
अर्थ: यह पापिन माया फंदा लेकर फसाने को बाजार में आ बैठी है । बहुत सारों पर फंदा डाल दिया है इसने ,पर कबीर उसे काटकर साफ बाहर निकल आया। हरीभक्ति पर फंदा डालने वाली माया खुद ही फंस जाती है और और कबीर उसे काट कर निकल आता है।।
- ‘कबीर माया मोहनी ,जैसे मीठी खांड़।
सतगुरु की कृपा भई , नही तौ करती भांड।।
अर्थ: कबीर कहते हैं यह मोहनी माया शक्ति स्वाद में मीठी लगती हैं । मुझ पर भी यह मोहनी डाल देती पर ना डाल सकी। सतगुरु की कृपा ने बचा लिया नहीं तो यह मुझे भांड बना कर छोड़ती। जहां-तहां चाहे मैं जिसकी चाटुकारी करता फिरता।
- ‘कबीर, इस संसार का , झूठा माया मोह।
जिहि घरि जिता बधावणा, तिहि घरि तीता आदोह’।।
अर्थ: कबीर कहते हैं झूठा है संसार का सारा माया और मोह । सनातन नियम यह है कि जिस घर में जितनी ही बधाइयां बजती हैं उतनी ही विपदा वहां आती है ।।
- बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ्या कलंक।
और पखेरू पी गए , हंस न बोवे चंच।।
अर्थ: बगुली ने चोर डुबोकर कर सागर का सारा पानी झूठा कर डाला । सागर सारा ही कलंकित हो गया है। दूसरे पक्षी तो उसे पी-पीकर उड़ गए पर हंस ही ऐसा था जिसने अपनी चोंच में नहीं डुबाई।
- जैंसी मुख तौ नीकसै , तैसी चालै चाल।
पार ब्रहम नेडा रहै , पल में करै निहाल।।
अर्थ: मुंह से जैसी बात निकले उसी पर यदि आचरण किया जाए ।वैसे ही चाल चली जाए भगवान तो अपने पास ही खड़ा है और वे उसी छण निहाल कर देगा।
- लेखा देणा सोहरा,जे दिल साँचा होइ।
उस चंगे दीवाने में, पला न पकड़ै कोई।।
अर्थ: दिल तेरा अगर सच्चा है तो लेना देना सारा आसान हो जाएगा ।उलझन तो झूठे हिसाब किताब में आप पढ़ती हैं।जब साईं के दरबार में पहुंचेगा तो वहां कोई तेरा पल्ला नहीं पकड़ेगा क्योंकि सब कुछ रहता ही साफ होगा।
- सांच कहूं तो मरिहैं, झुठे जग पतियाई।
यह जग काली कूकरी, जो छेडै तो खाय।।
अर्थ: सच सच कह देता हूं तो लोग मारने दौड़ेंगे। दुनिया तो झूठ पर ही विश्वास करती हैं ।लगता है दुनिया जैसे काली कुत्तिया है,इसे छोड़ दिया तो यह काट खाएगी।
- यह सब झूठी बंदिगी, बरियाँ पंच निवाज।
साँचे मारे झूठ पढ़ि,काजी करै अकाज।।
अर्थ: काजी भाई तेरी पांच बार की यह नमाज झूठी बंदगी है, झूठी पढ़-पढ़ कर तुम सत्य का गला घोंट रहे हो और इससे दुनिया की और अपनी भी हानि कर रहे हो।
- जप तप दीसै थोथरा, तीरथ ब्रत बेसास।
सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास।।
अर्थ: कोरा जप और तप मुझे थोथा ही दिखाई देता है ।और इसी तरह तीर्थो और व्रतों पर विश्वास करना भी । सुवे ने भ्रम में पड़कर सेमर के फूल को देखा और उसमें रस न पाकर निराश हो गया।
Sant Kabir Ke Dohe In Hindi
आशा करता हूँ Sant Kabir ke Dohe और उनका मतलब आपको समझ मे आ रहा होगा।
- मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ।
कदली- सीप – भुवंग मुख , एक बूंद तिहँ भाई।।
अर्थ: मूर्ख साथ कभी नहीं करना चाहिए उससे कुछ भी फलित नही होने वाला । लोहे की नाव पर चढ़कर भला कौन नदी पार कौन कर सकता है। वर्षा की बूंद केले पर पड़ी ,सीप में पड़ी और सांप के मुख में पड़ी । परिणाम अलग अलग हुए कपूर बन गया मोती बना और विष बना।।
- नान्हा कातौ चित दे, महंगे मोल बिकाऊ।
गाहक राजा राम है,और न नेडा आई।।
अर्थ: खूब चित लगाकर महीन से महीन सूत तू चरखे पर कात।वह बड़े महंगे मोल बिकेगा लेकिन उसका ग्राहक तो केवल राम है ,और कोई दूसरा खरीदार उसके पास भटकने का नहीं।
हम आशा करते हैं आपको Sant Kabir Ke Dohe पढ़ कर उनसे बहुत कुछ सीखने और उनसे प्रेरणा मिली होगी। आज करोड़ों लोग Sant Kabir ke Dohe पढ़ते हैं और प्रेरणा लेते हैं। उनका जन्म स्थान वाराणसी को उन पर गर्व होगा।
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